एक बार लिखने बैठा, पेन निकला तो दिल निकल आया धप्प से , उछल कूद करने लगा सामने . मुट्ठी भर का .... छोटा सा .. धधकता हुआ .... साबुत लाल-अंगार दिल .
मैनें उससे कहा - कबख्त ! .... यहीं हो ! ... हुए नहीं किसी के अब तक !?
वह बोला - व्यंग्यकार का हूँ ..... जो हाथ लगाता है .....उसे फफोले पड़ जाते हैं .....
मुझे अच्छा तो नहीं लगा ..... फिर भी उससे कहा - चल अपन खेलते हैं ...
अब ये प्रतिदिन का किस्सा हो गया ..... अपने दिल के साथ खेलना ..... हर दिन दिवाली.
पत्नी रोज ही कहती है - बस भी करो ...... घर जलाओगे क्या !!!!!
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